गुरुवार, 19 नवंबर 2015

दुनिया की रीत अपनों का मीत

नहीं  जानता  था  कि   यहाँ  पर  इतना सब कुछ होगा।
फर्ज  को  एहसान  बताकर,  ऐसा हृदय विदारक होगा।
मेरे  मन  का   आस   मुझी  पर,   बनकर  लौट  पड़ेगा।
मेरी   ही   उम्मीद   तुरन्त   मुझ-पर   पश्चाताप   करेगा।
तेरे   कुटिलता   के   आगे   मैं   कष्ट   भोग   रहा    हूँ।
तेरे करनी से आज स्वयं को, मध्य में लटका पा रहा  हूँ।
खली   थी   कभी   नहीं  मूझको,   तेरी   सभी  चतुराई।
लेकिन जब तुम अन्त किया तो बरदाश्त नहीं हो  पाईं।
तिनका सा  विवश   डुबता  उगता   बहता  सोचता  हूँ।
अन्दर    छिपे   सच्चाई   को  मैं   जान   नही  पाता हूं।
सारी  बातें  जान-बूझ-कर  भी   मैं   बोल  नहीं  पाता।
निष्कर्ष  पर जाकर  समझ  बैठा  मैं  हारा  तुम  जीता।
तेरा यहा पर ठौर ठिकाना, तुम कुछ भी कर सकता है।
भले  ही  इसके  लिए  तुम-भ्रष्ट-पथ-पर चल सकता है।
अपने स्वार्थ को सिद्ध-पूर्ण-कर नीचता पर आ सकता है।
मिट्टी-पलीद हो जाये भली, लेकिन पिछे हट नही सकता।
हाँ तुम भातृ-प्रेम मुझ पर बरसाया था, छल करने  को।
मिठी-मिठी   बातों  में   हर्षाया   था  मुझे   हरने   को।
तुने तो मुझपर किचड़ छिड़ककर इल्जाम लगा दिया।
मुझको तुम अपने से घृड़ा करने के लायक बना दिया।
मेरा इसमे  क्या  दोष है ?  मै अपना  फर्ज  निभाया ।
सत्य  का  पाठ  पूर्वजो  के आदर्श ने मुझे सिखलाया।
अन्तहिन,त्रुटिहिन ,सत्यहिन,सब साबित हो गया तुम।
फिर भी अपने आप को पहचान नहीं कर पाया तुम।
चार लोगों का संग का मिला,अपने को महान समझता।
लोगों  को  झूठा  भरमाकर लम्बी-लम्बी  बातें फेकता।
जब   आता  है मोरचा   तो   खुद   पिछे   हट   जाता।
अपनों को बचाने के लिए दूसरों को  खड़ा कर जाता।
नीच   मनुज   की   बुद्धि,  कभी  उच   नही  हो  पाती।
संयोग वश हो जाती तो,अपना छाव जरूर छोड़ जाती।
जब  उसका   गुजर- बसर  किसी पर नही चल पाता।
तब जाकर नीचता का प्रमाण देकर सबको अझुराता।
यही  है    यहाँ    पर    अधिकतर    लोगों   की   रीत।
पेट   में   रखते   खन्जर,   बाहर    में    दिखाते   प्रित।
जरूरत सिद्ध करने के लिए, बताते चलते अपना मित।
अगर नहीं होती पुरी जरूरत  गाते शिकायत की गीत।
@रमेश कुमार सिंह / ०५-०९-२०१५
९५७२२८९४१०

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

कौवा बनाम नर (कविता)

कौवा कांव-कावं करता हुआ,
घर के मुन्डेर पर देता दस्तक।
अपनी आवाज़ में भूख को इंगित,
करता  हुआ।
नर से कहता है -
मैं हूँ उड़ता पंछी।
पंख को डोलाते हुए,
आया हूँ तेरे दर पे।
दे-दे मुझको कुछ दाने,
जिसे तुम बेकार कर देते हो।
बिना काम के वो दानें,
मेरे जीवन का कितना अहम,
हिस्सा बन जाता है।
यही बातें करता है,
वह कौवा अपनी आवाज़ में।
देता है नर उसको जबाब में।
नर कहता है --
उड़ जा उड़ जा रे काऊ गुद्दा,
तू का मेरा काम किया है।
तुम्हें मैं किसलिये खिलाऊँ,
मैं इसे उगाने के लिए,
किया है कठिन परिश्रम,
खून पसीना एक किया है ।
तुम्हें पता है--
हम कितना लोभी हैं,
स्वार्थ का पहरा हैं हम पर,
हम अपने को ही नहीं देते।
सड़ा देते है गोदामों में अनाज,
नहीं करते किसी का कल्याण।
शेष बचे भोजन को,
खिला देते मवेशीयों को,
जिनसे मिलता है,
मुझे फायदा,
हम वही काम करते हैं।
आजकल हम नर हो गये हैं,
स्वार्थी।
नर के इन शब्दों को सुनकर,
बोला कौवा---
काव-काव की आवाज़ में।
इतना गीर गया इन्सान,
नहीं रह गई कोई पहचान,
खुदा ने बनाया तुझे महान।
नहीं समझ पाता मान-सम्मान।
तुमसे तो हम सब अच्छे,
करते हर कार्य मिलजुल के।
जा रहा हूँ मैं अब तेरे दर से।
रमेश कुमार सिंह /१२-०८-२०१२

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

रिमझिम बारिश ☔

रिमझिम रिमझिम~~ बारिश होती।
ठन्डी ठन्डी हवा जो~~~~~बहती।
सिहरन पैदा तन-मन में~~ करती।
ठनडापन का~~ एहसास दिलाती।
जलपरी अपने को~~~~~ कहती।
हम सबके चरणों को~~~~ धोती।
जहां तहां पानी की बौछारें~ करके,
सबका नि:शुल्क कल्याण~~करती।
जमीन को पानी से~~~ तर करती।
किसानों का हृदय ठन्डा~~ करती।
धान के बिजड़े को देती~~ मुस्कान,
हम करेंगे तेरा भी कल्याण,~कहती।
बारिश आने से बढ गई मेरी मुस्कान।
अब रखेंगे सभी  का~ समुचित ध्यान।
खेतों में अपनी बाली~~ लहराकर के,
करेंगे सब जीवों का~~~~ कल्याण।।
रमेश कुमार सिंह/१७-०७-२१०५

शनिवार, 13 जून 2015

भ्रष्टाचार (कविता)

आज जरूरत है भ्रष्टाचार से देश को बचाने की
 मार झेल रहे है गरीब स्वतंत्रता में परतंत्रता की
 हमें उनको उठाना है जिसे है प्रबल उमंगें जीवन की
 इसलिए आओ युवक लगा दो बाजी अपने जीवन की
नहीं है कोई व्यक्ति इनके उपर ध्यान करने वाला
 बन जाएं हम सब मिलकर इनके भविष्य का रखवाला
 इनके रक्षात्मक रणनीति हम सबको बनाना होगा
 इनके अन्दर पैदा करना भ्रष्टाचार से लड़ने की ज्वाला
जहां देखते है, वहाँ मिलता भ्रष्टाचार का पलड़ा भारी
 यहा इनके जीवन की नईया हो गई है विनाशकारी
 बने बहुत से योजना इनको उपर उठाने की सरकारी
 राजनेताओं, अधिकारियों से हो गई इनकी बरबादी
सरकार के तरफ दे दिया गया नाम इनका महादलित
 हमेशा ज्ञान बिन आलोकित पथ से रहते हैं बिचलित
 ये भी है हमारे बन्धु ,हमारा फर्ज है इन्हे राह दिखाना
 इनके अन्दर लड़ने के लिए करना है ज्ञान को संचालित।
इनका भी हक बनता है हमारे साथ -साथ चलने की
 कदम से कदम मिलाकर गले में गले मिलाकर चलने की
 दुनिया से अलग रहने के लिए ऐसा क्यों बना दिया गया है
 सरकार से लड़ाई करें इनका भी भविष्य उज्ज्वल करने की
@रमेश कुमार सिंह

सोमवार, 8 जून 2015

मुक्तक

जिन्दगी बहुत हसीन है हँस- हँस के जीना यारों ।
 दुनिया बहुत लम्बी-चौड़ी है सबको हँसाना यारों।
 अपने तरफ से सबका पूर्ण सहयोग करना यारों।
 किसी को दर्द की दुनिया मे पहुचाना नही यारों ।
@रमेश कुमार सिंह
 

पर्यावरण (कविता एवं मुक्तक)

वृक्षों से मिलती है स्वच्छ हवा
लोग वृक्षों को क्षति  न पहुचाएं।
इन्हीं से मिलती है सुन्दरता
इस सुन्दर सुगंध को न गवाएं।
महत्वपूर्ण हिस्सा जिन्दगी के हैं
अपने परिवार का अंग बनाएँ।
बच्चों की तरह इन्हें जन्म देकर
सुन्दर सबका भविष्य बनाएँ।
वायुमंडल का संतुलन बनाकर
निशुल्क प्रदान करते हैं सेवाएं
वातावरण को शुद्धिकरण कर
जीवों को प्राणवायु उम्र भर दिलाए।
हमारे आवरण बन-रक्षा-कर
जीवन की नईया पार लगाते
इर्द-गिर्द कवक्ष-बन-कर
आपदाओं से रक्षा करते।
बाढ़ -सुखाड़ की कमी कर के
अच्छे मानसून को बुलाते
इसी मानसून पर निर्भर हो के
पृथ्वीतल पर अच्छा माहौल बनाते।
पर्यावरण  पर  संकट घहराया है
मानव ही इस कुकृत्य को रचाया है
जल,ध्वनि प्रदूषण कहीं करता है
कहीं करता है वायु ,मृदा प्रदुषण।
सब मिलकर परि-आवरण को
शुद्ध कर स्वच्छता का आनंद ले
यही है असली मानवता का धर्म।
यही करने का जिन्दगी में संकल्प ले।
@रमेश कुमार सिंह / ०५-०६-२०१५
        ~~~~~मुक्तक ~~~~
पर्यावरण का सुरक्षा  करना हमारा धर्म है
वृक्ष और पौधा लगाना यही हमारा कर्म है
इससे वायुमंडल का संतुलन हो जाता है
पृथ्वी को हरा भरा करना यही सत्कर्म है
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
दुनिया वालों से हमारा एक यही पुकार है
बच्चों की भान्ति वृक्षों का सत्कार करना है
वृक्षों से धरा को सजाने और सँवारने के लिए,
वृक्षारोपण  के लिए सभी को प्रेरणा देना है
@रमेश कुमार सिंह

मंगलवार, 2 जून 2015

जिन्दगी (कविता)

जिन्दगी भी एक अनुठा पहेली है
कभी खुशी तो कभी याद सहेली है
कभी उछलते है सुनहरे बागानों में
कभी दु:ख भरी यादें रूलाती है

अजब  उतार चढ़ाव आते रहते है
बचपना खेल-खेल में बित जाते हैं
भागमभाग जवानी में आ जाते हैं
कई उलझने मन में जगह बनाते हैं


मानसिक तनाव बढ़ने लगते हैं
एक दूसरे से मसरफ बिगड़ते हैं
लोग ईमानदारी से दूर भागते हैं
ईर्ष्या और द्वेष को गले लगाते है


जिन्दगी एक अनबुझ रास्ता है
इसे समझ पाना एक समस्या है
समझने में कड़ी मेहनत करते हैं
तब इस सफर को तय करते हैं


वाह रे जिन्दगी क्या रंग लाती है
बचपन में उमंग भर  देती है
जवानी में भाग-दौड़ ला देती है
और बुढापा में स्थिर कर देती है


यही है जिन्दगी का रहनुमा दस्तूर
हर पल को कर देता है क्षण भंगुर
कराता है सबको यही पर सफर
चाहे वो गाँव हो या शहर


यही है जिन्दगी की कहनी
जो कभी ला देता है रवानगी
और कभी ला देता है दीवानगी
सिखाता है सबको जिन्दगानी
-@रमेश कुमार सिंह
  १२-०५-२०१५

मंगलवार, 26 मई 2015

मुझे ऐसा लगा .....! (कविता)

मुझे ऐसा लगा आपका चेहरा उदास है
कहाँ खोये रहती हैं लगाईं क्या आश हैं
जब मैं चला अपने आशियाना की तरफ,
ऐसा लगा रोकने का कर रही प्रयास हैं।
आँखों में देखा भरा आँसुओं का शैलाब है
उमड़ रहा था जैसे बादल भरा बरसात है
स्पष्टतः हृदय  की आवाज़ झलक रही थी,
कह रही  रुक जाइए करनी कुछ बात है।
मौन की ही भाषा में चल रही कुछ बात है
अन्तरात्मा की आवाज़ उठा रहीं सवाल है 
जाकर क्या करेगें ? ठहरिए कुछ देर तक,
बाकि है दिल की तमन्ना पूर्ण  की आश है।
--------रमेश कुमार सिंह ♌
-------१८-०४-२०१५

रविवार, 24 मई 2015

चाँदनी रात (कविता)

दीवस के समापन के बाद
अंधकार का धिरे-धिरे छा जाना।
और उनके बीच टिमटिमाते तारो का,
नजर आना।
मानो जुगनू की तरह विचरण करना।
अप्रतिम सुन्दरता को साथ लिए,
इसी बीच में खुशबुओं को विखेरती हुई।
लोगों को शीतलता प्रदान करती हुई।
मन्द मन्द धिमा प्रकाश ज्योति के सहारे।
गगन में तारों के फौज के बीच में,
मौज के साथ आनन्दित हुए।
अंधेरी रातों में ठन्ढी बयारों के बीच
चाँद ने अपनी चाँदनी को ,
पृथ्वीवासिओं को प्रदान कर रही है।
मन प्रफुल्लित सपनों में हो रहे हैं
-----@रमेश कुमार सिंह
-----०८-०४-२०१५

शनिवार, 23 मई 2015

जेठ की दुपहरी (कविता)


जेठ की दुपहरी में सुरज ने खोल दिया नैन।
अपनी तपती हुई गर्मी से किया सबको बेचैन ।
पशु-पक्षियों ने छोड़ने लगे अपना रैन।
मानव भी इस तपन में हो गया बेचैन।

नदी और झरना कर दिये अपने पानी को कम
सुख गई सभी नदियाँ झरने हो गये सब  बन्द
त्राहि -त्राहि  मच गया सभी जीवों में एक संग
लगे भागने इधर उधर हो गये सब तंग

कुआँ और तालाब की हालत हो गई शिकस्त
सूर्य को पानी समर्पित कर दिखाने लगे तल
चिड़िया चहचहाकर खोजने लगी पीने का जल
नलकूप भी जहा तहा अपना तोड़ने लगे दम
-----@रमेश कुमार सिंह

गुरुवार, 14 मई 2015

हौसला (कविता)

अपने हौसला को बुलन्द रखना है
सम्भल-सम्भलकर यहाँ चलना है
जिन्दगी के सफर में काटे बहुत है
अपने पथ से बिचलित नहीं होना है


जो भी आते हैं समझाकर रखना है
अपने शक्ति में  मिलाकर रखना है
सीखना-सीखाना है उन्हे सत्य का पाठ
इस कार्य को कर्तव्य समझकर चलना है


हम जो भी है अभी इसे नहीं गवाना है
इसी के बल पर आगे रास्ता बनाना है
हक के लिए हमेशा लड़ना है यारों
सरकार हो या नेता कभी पिछे नहीं हटना है


पहले हम लोगों को कायदा बनाकर चलना है
भाई चारे का भाव बरकरार रख कर चलना है
अगर फिर भी नहीं छोड़ते हैं हम पर राज करना
कफन सर पर बाधकर,सामना डटकर करना है।
---------@रमेश कुमार सिंह

मंगलवार, 12 मई 2015

फिर हिली धरती!!! (कविता)

धरती के अन्दर उदगार उठा
जिससे भू-पर्पटी हिलने लगा
आपसमें शोर हुआ चारों ओर
अफरा - तफरी मचने लगा


लोग मकानों से निकलकर
बन गये सब पथ के राही।
चर्चा विषय चहुओर बनाकर
भागे सवत्र जान बचाकर।


मच गया चारों तरफ हंगामा
चाहे नुक्कड़ हो या चौराहा
गाँव-गाँव हर गली -गली में
कई जगह हर शहर-शहर में


फिर भी ईश्वर की कैसी लिला है
क्षण भर में दुखित कर देता है
पलभर में प्रलय मचाकर यहाँ,
अपनी शक्ति का प्रमाण देता है
@रमेश कुमार सिंह /१२-०५-२०१५
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शुक्रवार, 8 मई 2015

मंजिल (कविता)

मंजिल की तरफ बढते रहना।
हरदम कदम को बढ़ाते रहना
जिन्दगी, है लक्ष्य को पाने लिए
उन्नति  के पथिक  बने रहना।
जिन्दगी में बहुत सी समस्याएँ।
धैर्य के बल पर इसे निपटाएँ ।
तभी होगे  हम  लोग मजबूत,
सबको यही हम पाठ सीखाएँ।
रास्ता  है  बहुत  टेड़ा-मेड़ा।
पार करना  जिवन का बेड़ा।
रोड़े  आते  रहते हैं बहुत से,
सबसे तो निपटना ही पड़ेगा।
हिम्मत रखकर आगे बढना।
लक्ष्य से कभी नहीं भटकना।
हमेशा यही कोशिश करना।
मंजिल तक जरूर पहुँचना।
---------रमेश कुमार सिंह

बुधवार, 6 मई 2015

मानव (कविता)

मानव अब मानव नहीं रहा।
मानव अब दानव बन रहा।
हमेशा अपनी तृप्ति के लिए,
बुरे कर्मों को जगह दे रहा।


राक्षसी वृत्ति इनके अन्दर।
हृदय में स्थान  बनाकर ।
विचरण चारों दिशाओं में,
दुष्ट प्रवृत्ति को अपनाकर।


कहीं  कर रहे हैं लुट-पाट।
कहीं जीवों का काट-झाट।
करतें रहते बुराई का पाठ,
यही बुनते -रहते सांठ-गाँठ।


यही  मानवीय गतिविधियां।
बनाते हैं अपनी आशियाना।
देखते नहीं हैं अपने अन्दर,
बताते हैं दूसरों में खामियां।
------रमेश कुमार सिंह
http://shabdanagari.in/website/article/मानवकविता
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रविवार, 3 मई 2015

गरीबी


गरीबी मनुष्य के जीवन में एक मिट्टी की मूर्ति के समान स्थायीत्व और चुपचाप सबकुछ देखकर सहने  के लिए मजबूर करती है शायद उसकी यही मजबूरी उसके जिन्दगी के सफर में एक कोढ़ पैदा कर देती है।ईश्वर भी अजीबोग़रीब मनुष्य को बना दिया है किसी को ऐसा बनाया है कि वो खाते -खाते मर जता है कोई खाये बिना मर जाता है वास्तव में जब कोई गरीबी की मार झेलता है। न जाने उसे कैसी -कैसी यातनाएँ झेलनी पड़ती होगी।उसके उपर क्या गुजरती होगी।वो अच्छा कार्य करने के पश्चात् भी किसी के सामने उसमें कहने की हिम्मत नहीं होती उसके अन्दर बहुत सी बातें आती है लेकिन समाज ने ऐसा उसे एक दर्जा  प्रदान कर दिया है वो उसी के दायरे में रहकर अपने हर काम को करने के लिए मजबूर हो जाता है।इतना ही नहीं इन गरीबों के प्रति सरकार भी अव्यवहार करती है इनके लिए अलग वर्ग बाट कर रख दी है।गरीबों के लिए गरीब भोजन गरीबों के लिये गरीब आवास गरीबों के लिए ट्रेनों में गरीब ट्रेन (समान्य बोगी) बना दी गई।उस ट्रेन में एक तरफ लोगों को बैठने के लिये जगह नहीं मिलता है दूसरी तरफ़ लोग आराम से पैर फैला कर मिठे सपने बुनते सफर करते हैं।एक तरफ लोगों की समस्या के वजह से हालत खराब हो रही है दूसरी तरफ सपनों की नदी में तैरते हुए आनंद के साथ सफर कर रहे हैं।जिन्दगी का सफर दोनों काट रहे हैं एक तरफ कष्टकारक है तो एक तरफ दुखदायक है।क्या ईश्वर की लिला है जिन्होंने मनुष्य को बनाते समय अपने पर भी गर्व किया होगा कि मैं भी एक अच्छे इनसानों को बनाया है। लेकिन वो बनाते समय यह नही सोचे होगें कि ये लोग इतना बड़ा हैवानियत को अपने अन्दर पाल लेगे।
          फिर लौटते है उस गरीब की तरफ जो एक दाना के लिए किसी चौराहे पर सुबह से साम तक पेट की छुदा को शान्त करने के लिए एक मनुष्य ही मनुष्य के चेहरे को एक टक देखते रहता है उसकी याचना भरी आखों के सामने कई तरह के चेहरे साम तक नजर आते है। फिर भी उसके पेट की भुख समाप्त नहीं हो पाती है। और उसी रास्ते के बगल में आसमान रूपी छत के नीचे अपनी निंद को पुरा करना चाहता है पर भुख के मारे उसकी निंद पुरा नही होती है और स्वास्थ्य खराब हो जाता है उसके जिन्दगी का सफर पुरा नही हो पाती है ।उस गरीब की रह जाते हैं अधुरे सपने रह जाते हैं अधूरे ख्वाब और रह जाती हैअधूरी जिन्दगी।
               गरीबों का कोई अस्तित्व है  मुझे नहीं लगता ऐसा इनका कोई अस्तित्व नहीं है आज के समय में,हाँ इनका एक अस्तित्व है जब किसी को इनकी जरूरत पड़ती है तो चले आत हैं इनका शोषण करने के लिए और अपना स्वार्थ सिद्धि पुरा कर लेते हैं। शायद यही एक गरीब का हाल होता है। आज के समय में एक गरीब होना सबसे बड़ा गुनाह है। हे ईश्वर सबको सबकुछ देना लेकिन गरीबी मत देना।
-----------------@रमेश कुमार सिंह

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धरती में कंपन
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मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

नवोदय का सफर (संस्मरण)

  • नवोदय का सफर
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                   मैं कोई लेखक नहीं हूँ, हाँ थोड़ा बहुत शब्दों में शब्दों को एक कतार में रखकर कुछ पंक्तियों का विस्तार कर देता हूँ। मिल गया है मुझे अपने जिन्दगी में बिताये हुए कुछ पल का भाग जिसको सफर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मान बैठा हूँ और उसी हिस्से को शब्दों के जरिए इन पन्नों में समेटने की कोशिश किया हूँ बस यही है हमारी लेखनी जिसका नामकरण कर दिया हूँ- नवोदय का सफर।
                    अपने घर पर मकान के छत के उपर प्रतिदिन की तरह लालटेन के प्रकाश में अपनी किताब के पन्ने उकेरकर पढ रहे थे।  २४ जून वर्ष २०११ का दिन मुझे बहुत अच्छी तरह याद है मैं नवोदय विद्यालय के साक्षात्कार से गुजर चुके थे।मुझे परिणाम का इन्तजार था। अपने विषय के किसी सवाल पर मेरी मानसिक क्रियाएँ शक्तियां लगाईं हुई थी,और उस सवाल को अपने अन्तिम चरण तक पहुंचाने की प्रयासरत थी।
                        तभी अचानक बगल में रखी हुई मोबाइल की घन्टी की आवाज़ आईं। और बिच में ही पढाई से मोह भंग हो जाता है और मैं मोबाइल को हाथ से उठाकर देखा तो नम्बर जाना -पहचाना नहीं था समय ९:४५ सायंकाल हो रहा था। ज्यों ही मोबाइल नंबर को स्वीकार किया तभी उधर आवाज़ आती है कि -आप रमेश कुमार सिंह जी बोल रहे हैं।  तो मैं बोला -हाँ जी, आप कौन ? तभी उधर से आवाज़ आती है-मैं जवाहर नवोदय विद्यालय जपला -२ पलामु से प्राचार्य बोल रहा हूँ आपका चयन हमारे विद्यालय में टी०जी०टी० हिन्दी शिक्षक के पद पर किया गया है आप विद्यालय में आकर योगदान कर अविलम्ब अपना कार्य शुरू करें।
                              इतना सुनने के बाद ही मेरे खुशियों का ठिकाना न रहा, और २८ जून को पता लगाने के लिए कर्मनाशा स्टेशन से ,बरकाकाना पैसेन्जर पकड़ कर जपला की तरफ चल देते हैं। ट्रेन में बैठे हुए सोच रहे थे कि -कैसा विद्यालय होगा कहाँ होगा।क्या सच्चाई है। यही सब मन में उधेड़बुन चल रहा था। तब तक गाड़ी ,डेहरी स्टेशन पहुँच चुकी थी।वहाँ ज्यों ही गाड़ी गया रेल-पथ को छोड़ती है। तब मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी विरान जगहों पर जा रहा हूँ।जंगली इलाका का आभास हो रहा था ।खिड़की के रास्ते मेरी नज़र बाहर के दृश्यों पर जा पहुंचती है। जो चीजें देखतें हैं शायद वही सब कुछ किताबों में पढ़े हुए थे। पलामु जिला का वही छायावृष्टी भाग वाला इलाका जहां  कि भूमि पानी के लिए बराबर तरसती  रहती है।पानी के बिना अपना उपजाऊ पन शक्ति को छोड़ चुकी है विरान हो चुकी है उसे बंजरभूमि की संज्ञा दे दी गयी है।
                      आस-पास ट्रेन में ही बैठे लोगों से में पुछा तो जानकारी मिली कि- इधर के ही लोग कहीं भी किसी के यहाँ कम मजदूरी पर कार्य करने को तैयार हो जाते हैं।क्यों कि इधर आज भी भुखमरी  है। गाड़ी आगे की तरफ अपनी रफ्तार से चल रही थी।  मैं यही सब देखते जानकारी लेते जा रहा था। तभी बिच में एक छोटा सा पहाड़ दिखाई दिया। उस पहाड़ के अन्दर एक सुरंग थी जिसमें गाड़ी अन्दर से होकर गुजरती हुई पार की तभी मेरी धड़कन और तेज हो गई कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। लेकिन क्या? मेरा पहला जाब था छोड़ भी नहीं सकता था अच्छा पद,अच्छा नौकरी,अच्छा विद्यालय इसलिए नौकरी को पकड़ना मेरी मजबूरी थी। डर मुझे लग रहा था लेकिन डर को अपने अन्दर दबायें हुए था ।
                     पहाड़ियों को,बंजरभूमि को पार करते हुए गाड़ी अपने लक्ष्य की तरफ़ क्षण-प्रति-क्षण अग्रसर बढ रही थीं। तभी किसी यात्री के मुखारबिन्दु से आवाज़ आईं कि जपला स्टेशन आने वाला है। तभी मैं प्राकृतिक दृश्यों से समझौता कर अपनी दृष्टि को समेटना प्रारम्भ कर दिये। समेटने में कुछ समस्याओं से जुझना पड़ा लेकिन समेट लिया। तभी गाड़ी स्टेशन पर रूक जाती है और मैं प्लेट फार्म पर उतर जाता हूँ मैं वहाँ के लिए अजनबी था । आदमी से लेकर इलाका तक सब अलग तरीके के दीख रहे थे।
                       फिर मैं प्राचार्य महोदय के यहाँ कॅाल किया और उनके बताये हुए रास्ते के अनुसार चलना प्रारम्भ कर दिया। एक आटो रिक्शा वाले को पकड़ा और बोला कि मुझे नवोदय विद्यालय ले चलोगे। तभी वो जबाब दिया क्यों नहीं मेरा यही तो काम है । कितनी दूर है-मैं बोला। लगभग तीन किलोमीटर है।
                  मैं विद्यालय पहुँच गया वहाँ देखा एक झारखंड सरकार के कल्याण विभाग का छात्रावास में नवोदय विद्यालय स्पेशल चल रहा था । पहुँचते ही एक गार्ड  एवं चपरासी से मुलाकात हुई वे लोग मुझे थोड़ी देर बैठने के लिए कहा।मैं बैठ गया कभी विद्यालय के बारे में तो कभी उन नये लोगों के बारे में इसी उधेड़बुन में था तभी चपरासी आया और बोला कि अन्दर साहब बुला रहे हैं। मैं अन्दर गया साहब के साथ बातचीत हुई परिचय हुआ। पढने-पढाने के सम्बन्ध में  बातें हुई।आवास से भी सम्बन्धित बातें हुई। और उसी दिन विद्यालय में योगदान भी कर लिये। योगदान करने के उपरांत मैं प्राचार्य महोदय से अनुरोध किया कि मुझे अपने रहने खाने एवं कुछ सामान वगैरह लाने के लिए मुझे दो-तीन दिन की मोहलत दी जाए।ताकि मैं अपने व्यवस्था के साथ रह सकूँ।
                              मुझे छुट्टी मिल जाती है मैं वापस घर आ जाता हूँ एक तरफ खुश था दूसरी तरफ़ अन्जान जगह होने के नाते खराब भी लग रहा था। लेकिन जो होने वाला है वो होकर ही रहता है।फिर मैं वापस एक जुलाई २०११ को वापस विद्यालय में दैनिक उपयोग करने वाला सामान लेकर पहुँच गया। और उसी दिन विद्यालय के बच्चे अपने घर से छुट्टी बिताकर अपनी पढ़ाई पुनः करने के लिए लगभग ७०% सायंकाल तक आ जाते हैं । हम भी, बच्चों के लिए अन्जान थे बच्चे हमारे लिए भी अंजान थे।
                         दूसरे दिन हमारे सभी साथी विद्यालय में उपस्थित हो जाते हैं। सभी शिक्षकों को प्राचार्य महोदय के माध्यम से गोष्ठी बुलाईं गई।उस गोष्ठी में प्राचार्य महोदय के माध्यम से शैक्षिक गतिविधियां, आवासीय एवं अन्य कार्य क्षेत्रों से अवगत कराया गया। और सभी लोगो को अपनी-अपनी जिम्मेदारियां सौप दी गई। हमारे सभी शिक्षक साथियों को अलग-अलग जिम्मेदारी दी गई थी जिसमें हमें फर्निचर प्रभारी के साथ -साथ अरावली हाउस का हाउस मास्टर की जिम्मेदारी दी गई थी। और समय-सारणी तैयार कर पढाई-लिखाई का सिलसिला शुरु हो जाता है।सब लोग आपस में एक परिवार की तरह रहने लगे और आनंद के साथ एक-एक पल , एक-एक दिन बीतने लगा। बिच-बिच में थोड़ी समस्या आईं लेकिन जैसे ही आईं वैसे ही उसके साथ निदान भी होता गया।
                      सब-कुछ ठिक चल रहा था लेकिन कमी थी एक २४ घण्टे की जिम्मेदारी थी उस विद्यालय में इसी कमी के वजह से कभी -कभी मन कुन्ठित हो जाता था अच्छा नहीं लगता था लेकिन करें तो क्या करें- मन, कार्यक्षेत्र ,नौकरी,अपनी समस्या का सामंजस्य स्थापित कर चलना ही पड़ता था।इसी बीच हमें कई नवोदय विद्यालय पर जाने का मौका मिला और वहाँ से कुछ कार्यकरने का अनुभव प्राप्त हुआ ।इतना ही नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी के साथ-साथ अपने कर्तव्य के प्रति कर्मठ रहने की सीख मिली।
                     वास्तव में ऐसे जगहों पर रहने से अच्छा व्यवहार अच्छी सीख एक दूसरे के प्रति अच्छा सहयोग सीखने को मिलता है। आज वो सब कुछ याद है जो वहाँ हम लोग साथ रहे,साथ में विचरण किये, साथ में मंथन किये ,आज सभी बातें हृदय के रास्ते से होकर मानसिक पटल पर होते हुए इस पन्नों में आकर सिमट गई।
    -----------@रमेश कुमार सिंह

    

रविवार, 26 अप्रैल 2015

समर्पण (कविता)

सहजता से लक्ष्य की ओर बढना,
निश्चितता से उसको  पूर्ण करना,
जिम्मेदारी को विशेष से समझना,
समर्पण शायद इसी को मान लेना।


पूर्ण जिम्मेदारी ही पूर्ण समर्पण है
इसे स्वीकार करना थोड़ा कठिन है
मैं जिम्मा लेता हूँ  या मैं समर्पित हूँ,
अधिकांश सुनने को यही मिलता है।


जिम्मेदारियों को लेकर उलझ पड़ना
उस समय समर्पण को याद रखना।
वही आगे बढ़ने की शक्ति देती है,
जिम्मेदारी का आधार ही समर्पण है
---------@रमेश कुमार सिंह


बुधवार, 22 अप्रैल 2015

जा रहा था मैं --!! (यात्रा वृतांत)

मैं कुद्रा रेलवे स्टेशन पर ज्यों ही पहुंचा तभी एक आवाज़ सुनाई दी   कि गाड़ी थोड़ी देर में प्लेट फार्म नम्बर  दो पहुंचने वाली है आवाज़ को सुनते ही मेरे अन्दर इधर टीकट कटाने की तो उधर गाड़ी छुट न जाए  यही दो बातें दिल के अन्दर आने लगी तभी अचानक मेरी नजर टिकट घर की तरफ गई वहाँ पर देखा भिड़ बहुत ज्यादा थी एक दूसरे में होड़ मची हुई है उसी भिड़ में भी शामिल हो गया बड़ी मशक्कत के बाद टिकट कटा लिया और जेब में रखते हुए प्लेट फार्म की तरफ बढ़ा तभी गाड़ी के हार्न की आवाज़ सुनाई दी और गाड़ी प्लेट फार्म पर आकर खड़ी हो गई।मैं गाड़ी पर चढने के लिए आगे बढ़ा तो देखा गाड़ी की सभी बोगी में  भारी भरकम भीड़-भाड़ दीखाई दे रही थी उसी भीड़ में एक जगह मेरी भी थी लेकिन निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वो जगह कहाँ पर हैं। तभी गाड़ी का संकेत हरा हो जाता है,हरा होने के वजह से मुझे जगह का निर्णय लेना मेरी मजबूरी हो जाती है और मैं एक जगह उसी भिड़ में बना लेता हूँ।
                   गाड़ी अपने रफ्तार में अपने गन्तव्य स्थान की तरफ़ बढ रही है।मैं बैठने के लिये जगह की तलाश करने लगा थोड़ी देर बाद जगह मिल गई।आराम से बैठ गया खिड़की के रास्ते मेरी नजर बाहर निकल गई और विचरण करने लगी ,कहीं लहराते फसलों में,कहीं वृक्षों की डालियों पर उलझते हुए आगे बढ रही है। पेड़,पौधे,फसल,चंचलता का भाव लिये हुए हैं।
                     तभी अचानक मौसम ने करवट ली और और आसमान में काले-काले बादल उमड़ने लगा इसी काले-काले बादलों के डर से सूर्य की किरणें सूर्य में समाहित हो गई।इतना ही नहीं बल्कि पेड़ पौधे भी अपनी पत्तियों का रंग बदलने लगे उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि कोई उन पर सामत आने वाली है। तभी बिजली की चमक के साथ-साथ बादलों के टकराने की आवाज़ आने लगी,अंधकार छाने लगा। हवा में गति तेज हो गई धुल की मात्राएँ बढ गई, तभी अचानक बादल जो आवाज़ कर रहे थे वो पानी का रूप लेकर धरती माँ के आचल में मोतियों के बुन्द की तरह बिखेरने लगे।
                    उधर एक तरफ प्यासी हुई धरती माँ की प्यास बुझती है वहीं दूसरी तरफ वही दूसरी तरफ किसानों के उगाये हुए फसल जो अपने अन्तिम चरण में है वो आत्मा समर्पण कर रहे हैं,अपने अस्तित्व को मिटाकर किसानों के हृदय पर गहरी चोट दे रहे हैं।थोड़ी देर पहले सब कुछ ठीक चल रहा था और थोड़ी देर बाद ही सब अस्त-व्यस्त हो जाता है बर्बाद हो जाता है। तभी गाड़ी की रफ्तार में कमी आने लगी मुझे आभास हुआ कि अब रुकने की कोशिश कर रही है मुझे भी तैयार हो जाना चाहिए ।बहुत कोशिश के बाद जो मेरी नजरें खिड़की के रास्ते बाहर में  बिखरे पड़े थे उन्हें किसी तरह से इक्कठा किया। तब-तक गाड़ी मुगलसराय के प्लेट फार्म पर ठहराव ले चुकी थी फिर मैं बाहर निकला तो देखा मौसम साफ है न पानी बरस रहा है न धुलभरे कण दिख रहा है बिलकुल  सुहाना मौसम बन गया है कभी-कभी ऐसा भी होता है सुख भरे पल में ही निहित होता है बड़ा दुखो का भण्डार।
                  एक तरफ पानी बरसने से लोगों को गर्मी से राहत मिलता है वहीं दूसरी तरफ खाद्य पदार्थ के क्षतिग्रस्त होने से भावी कष्ट होने की संभावना भी है।
----@रमेश कुमार सिंह
----२१-०५-२०१५
 

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

सबल ( कविता)

किसी सीमा को जब कोई,
तोड़ जाता है।
उसी वक्त भय का,
उदय हो जाता है।
यही भय द्वेष को अपने अन्दर,
पैदा कर जाता है।
द्वेष यहाँ पर हो जाता है आमंत्रित।
और वापस सीमा के अन्दर ले जाता है।
स्वयं मनुष्य,
सीमा के अन्दर रहने के लिए,
अपनी रक्षा के लिए,
सुरक्षा की दृष्टि से रक्षात्मक,
युक्ति  लगाता है।
वही बचाव की चेष्टा,
तनाव पूर्ण स्थिति पैदा कर जाता है।
यहीं मनुष्य कमजोर बन जाता है।
अगर सुरक्षा के सभी प्रयास छोड़ दो,
अपनी गलतियों की सफाई मत दो,
बस उन्हें सहज स्वीकार करो,
आगे बढ़ने का प्रयास करों
उस समय बिलकुल सुरक्षा-विहीन होते हो।
उसी समय एकदम सबल हो।
---------रमेश कुमार सिंह

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

उदासीनता


मनुष्य के,
उदासीनता का  मुख्य कारण
आदर्शवाद का अभावग्रस्त
अर्थहीन जीवन का होना प्रतीत
प्रतिस्पर्धा भरे संसार में भयभीत
उदासीनता इन्हें तब आती है
जब समस्या से निपट नहीं पाते हैं
आक्रामकता उदासिनता का,
प्रतिरोधक  होकर जब,
कोई हद को पार करता है।
तब वापस उदासीनता में ले जाता है।
इन्हें जरूरत है प्रेरणा की,
ऊर्जावान आध्यात्मिक ज्ञान की,
आजके संसार को भली-भांति जानने की,
अर्थहीन जीवन के भ्रम को हटाने की,
नहीं तो मनुज पर छाये रह जाती है।
बदलीं  की तरह उदासीनता।
--

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

पैसा -पैसा(कविता)

कोई दिवास्वप्न देखता है,
कोई ख्वाबोंको सजाता है।
यही पैसे की बेचैनी,
जो सबको भगाता है।


जो कीमत इसकी समझता है
ये उसके पास नहीं रहता।
जो कीमत नहीं समझता है,
हमेशा उसके पास रहता है।


जिसको कमी महसूस होता है,
इसका दर्द वही समझता है।
जिसके दिल पर गुजरता है,
बयाँ वही कर पाता है।


पैसा -पैसा होड़ मचा है ,
पैसा कहाँ है शोर मचा है।
इसी के खातीर लोभ बढा है,
एक दूसरे में द्वेष बढा है।


आऔ मिलकर करें कुछ ऐसा,
आ जाये सब में मानवता।
मानवता को सब अपनाकर,
व्यवहार करें सहयोग जैसा।
------रमेश कुमार सिंह ♌

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

अंधेरा,निंद और स्वप्न (कविता)


रात के अंधेरे में,
निंद का पहरा
मुझ पर होता है।
तब स्वप्न,
मुझे जगाता है ।
कर लेता है मुझे,
अपने में समाहित।
हो जाता हूँ मैं स्वप्नमय।
देखता हूँ तुम्हें,
कभी छोटी सी,
ज्योति की तरह।
कभी कुहाँसे में,
रूपहली झलमल,
बुन्द की तरह।
कभी लहलहाती,
कलियो की तरह।
मुस्कुराती हुई,
दिखती हो। उसमें निहारता हूँ,
तुम्हारा ही मुख-मंडल।
क्षण भर का,
यह उदय-अस्त।
केवल-
पैदा कर जाता है,
हृदय में सिहरन।
तभी अचानक,
निद्रा साथ छोड़ जाती है।
स्वप्न के पन्ने
बिखर जाते हैं। कोशिश करता हूँ,
इकट्ठा करने का,
लेकिन-
मिलती है मुझे,
असफलता,
रह जाती है मेरे पास,
सिर्फ विवशता ।
न रहती है अंधेरा,
न रहता है नींद का पहरा।
------रमेश कुमार सिंह ♌ -

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

कैसी है मानवता (कविता)

मानव ही एक मानव को कुछ नहीं समझता।
 एक दूसरे को नोचने में खुद महान समझता।
 चाहे वो अधिकारी हो या हो देश का राजनेता।
 मानव, मानव को कष्ट देने की तरकीब बनाता।


मानव अब इस धरती पर अब मानव नहीं रहा।
 सारे बूरे कर्मो को अपने हाथों पे लिए चल रहा
 चन्द फायदे के लिए भ्रष्टाचार को सह दे रहा ,
मानव, मानव के बच्चे का भ्रूण- हत्या कर रहा।


मानवता कैसे बनीं रहे क्या होगा इनका समाधान।
 समाज का समाजवाद पर जब केन्द्रित होगा ध्यान।
 निदान करने का कोशिश जब कुछ लोग करतें हैं,
कइ तरह की समस्याएं डालने लगती है व्यवधान।


•••••••••••••रमेश कुमार सिंह •••••••••••••••

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

स्वाद (कविता)


एक टॅाफी मिला।
जैसे गुल खिला।


कई दिनों से इन्तजार था।
उस टॅाफी के स्वाद का।


न जाने कैसा होगा स्वाद।
यही दिल के अन्दर आस।


तभी अचानक याद आई।
वो टॅाफी मेरे हाथ में आई।


स्वाद होगा कैसा आखिर।
चखकर देखें इसे जरुर।


तभी याद आये साथी लोग।
लिये स्वाद हम तीन लोग।


तब जाकर पता चला ऐसा।
है इसका स्वाद मिठा जैसा।


बहुत बहुत स्वादिष्ट लगा था।
कल्पना जैसा मन में था।
कल्पना जैसा मन में था••••!
~~~~~~~~रमेश कुमार सिंह

सोमवार, 30 मार्च 2015

जीवन (कविता)


दु:ख,
मिलता है,अगर हम,
खुशियां इकट्ठा,
करने में लगे हैं।
सुख,
मिलता है अगर हम,
खुशियाँ,
बाटने में लगे हैं।
यह दु:ख-सुख,
है क्या?
दोनों भाई हैं,
ऐसे भाई हैं।
कभी साथ नहीं रहते।
आते हैं,
अपनी अपनी बारी की,
प्रतीक्षा कर,
करते हैं सफर,
जीवन को साधन बनाकर,
अपनी-अपनी,
मंजिल की तलाश में,
हमेशा,
लगे रहते हैं जीवन में।
-------------रमेश कुमार सिंह ♌

रविवार, 29 मार्च 2015

राहगीर (कविता)

चला जा रहा चला जा रहा,
कहाँ जा रहा कहाँ जा रहा,
पता नहीं मुझे पता नहीं,
कहाँ जा रहा पता नहीं।
अपने दिल के अन्दर,
लिए सुख दुख का समंदर,
लिये दुखो का भण्डार,
या फिर लिए सपने सुन्दर,
पता नहीं मुझे पता नहीं,
कहाँ जा रहा पता नहीं।
अपनी मंजिल साथ लिए वह
अपने दिल में आस लिये वह
शायद करने कोई महान कार्य
दिल दिये जलाये हुए वह
पता नहीं मुझे पता नहीं,
कहाँ जा रहा पता नहीं।
भाई मेरे इधर तो आओ
कहाँ जा रहा मुझे बताओ
तब वह मुझसे आकर बोला
दुनिया में है अनेक दिल वाले
दर्द है अब तक जिनके दिल में
खुद हँसो और सबको हँसाओ
बात यही मै बताने जा रहा
चला जा रहा चला जा रहा।
~~~~~~~रमेश कुमार सिंह ♌

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

उम्मीद भरा वो सारे पल (कविता)


उम्मीद भरा वो सारे पल, अब विखरता जा रहा है।
बीत गये सुख भरे पल, दु:ख भरा पल   आ रहा है।


एक-एक होकर सामने, धुधलापन होता जा रहा है।
कायम है अंधेरा सामने,बढता हुआ चला आ रहा है।


रोशनी के लिये हर पल, कोशिश करता जा रहा हूँ।
मगर कमी तेल का सामने,नज़र में पड़ता जा रहा है।


रोशनी के बिना एक पल, आगे नहीं बढ़ा जा रहा है।
अंधकारमय भविष्य हरक्षण, ऐसा समझ में आ रहा है।


आशातीत किसी के सामने,नाउम्मीद नजर आ रहा है।
समस्या है मेरे सामने ,समझ में कुछ नहीं आ रहा है।

----------------रमेश कुमार सिंह /०८-०३-२०१५

रविवार, 22 मार्च 2015

माँ


माँ
क्या होती है ?
ये सबसे ज्यादा
वहीं जानता है,
जिनके पास माँ,
नहीं होती हैं।
भगवान भी,
अजीबोग़रीब है।
किसी को माँ की,
ममता के पास रखता है,
तो किसी को दूर।
उस बच्चे का क्या,
कसूर ?
जिसके पैदा होते ही,
माँ मर गयी।
यही कसूर कि,
अपने नई दुनिया में,
कदम रखते ही,
माँ को विदा कर दिया।
हे! भगवान
उन बच्चों पर रहम कर,
जिन्हें माँ की,
ममता की,
माँ की गोद की,
उँगलियाँ पकड़कर,
चलने की।
माँ के आचल की,
बच्चे के जीवनपर्यंत,
काम आने वाले दूध की,
माँ की छत्रछाया में ,
पलने की जरूरत है।
-------रमेश कुमार सिंह ♌
-------०८-०३-२०१५

गुरुवार, 12 मार्च 2015

विद्यालय के बच्चे (कविता)

यही है ,विद्यालय के बच्चे
बच्चे हैं,विद्यालय के यही।


अभिष्कार,विज्ञान की नई।
रचना,रचयिता की नई।
कहानी ,लेखक की नई।
विद्यालय के बच्चे हैं यही।


नई घटा,हवा की।
नया सूर ,सरगम की।
नये तारे, सौर मंडल के।
यही है, विद्यालय के बच्चे।


नई किरण सुरज की।
नये रंग ईन्द्रधनुष के।
नई पंखुड़िया फुलो की।
नई उमंग सब लोगों की


यही है ,विद्यालय के बच्चे
बच्चे हैं,विद्यालय के यही। ~~~~~~~रमेश कुमार सिंह ♌

बुधवार, 11 मार्च 2015

कुछ नहीं (कविता)

वह है छोटा,
महान,
पर कितना ।
निखट्टू,
सभी मानते हैं।
मामूली
सभी के नजर में।
महत्त्व ,
कोई नहीं जानता।
उसका दर्द,
कोई नहीं जानता।
सबको सुख,
देता है दर्द,
सहते हुअे।
कटता है खुद,
लिखावट,
देता है अच्छी सबको।
वह है सिर्फ और सिर्फ,
एक पेन्सिल।
कटता रहता है
हर समय वह।
तब तक जब तक,
उसका अस्तित्व,
खत्म न हो जाए।
जीवन समाप्त न हो जाए।
सोचों,
एक छोटी वस्तु
हमारे लिए करती है
कितना  कुछ,
उसके लिए ,
हम क्या करते हैं।
कुछ नहीं,
कुछ भी नहीं,
कभी नहीं
~~~रमेश कुमार सिंह